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उत्तराखंड को वीरों की ही धरती नहीं बल्कि वीरांगनाओं की धरती भी कहा जाता है। जिसमें से एक वीरांगना हैं तीलू रौतेली। जिनको दुनिया में एकमात्र ऐसी वीरांगना कहा जाता है जिसने सात युद्ध लड़े।
15 से 20 साल की उम्र में सात युद्ध लड़ने वाली तीलू रौतेली संभवत विश्व की एक मात्र वीरागना हैं।
उनके अदम्य शौर्य से की वजह से आज उनका नाम इतिहास के पन्नो में सुनहरे अक्षरों में दर्ज कराया है। तीलू रौतेली के नाम पर उत्तराखंड में प्रतिवर्ष उत्कृष्ट कार्य करने वाली महिलाओं को पुरस्कृत कर सम्मानित किया जाता है। आठ अगस्त को इनका जन्मदिवस मनाया जाता है और इसी दिन महिलाओं को सम्मानित किया जाता है।
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि तीलू का नाम तिलोत्तमा देवी था।
इनका जन्म 8 अगस्त 1661 को ग्राम गुराड़, चौंदकोट (गढ़वाल) के भूप सिंह (गोर्ला)रावत तथा मैणावती रानी के घर में हुआ।
तीलू के दो भाई भगतु और पत्वा थे।
15 साल की उम्र में तीलू की सगाई हो गई।
15 साल की उम्र में तीलू ने घुड़सवारी और तलवारबाजी सीख ली थी।
उनके गुरु शिबू पोखरियाल थे।
तीलू के पिता भूप सिंह, दो भाई और मंगेतर शहीद हो गए थे।
यह उस समय हुआ जब गढ़ नरेश और कत्यूरी प्रतिद्वंदी थे। कत्यूरी नरेश धामदेव ने जब खैरागढ़ पर आक्रमण किया तो गढ़नरेश मानशाह ने खैरागढ़ की रक्षा की जिम्मेदारी तीलू के पिता भूप सिंह को सौंपी और खुद चांदपुर गढ़ी में आ गए। भूप सिंह ने डटकर आक्रमणकारियों का मुकाबला किया, लेकिन युद्ध में वह अपने दोनों बेटों और तीलू के मंगेतर के साथ वीरतापूर्वक लड़ते हुए शहीद हो गए।
इन सभी घटनाओं से अंजान तीलू कौथिग में जाने की जिद करने लगी तो मां ने उससे भाइयों की मौत का बदला लेने को कहा। मां के इन वचनों को सुनकर उसने कत्यूरियों से बदला लेने तथा खैरागढ़ सहित अपने समीपवर्ती क्षेत्रों को मुक्त कराने की अपने मन में ठान ली। सैनिकों, बिंदुली नाम की घोड़ी और अपनी दो प्रमुख सहेलियों बेल्लु और देवली को साथ लेकर तीलू युद्धभूमि में उतरी।
तीलू गोरिल्ला छापामार युद्ध की रणकला में पारंगत थी। इसी गोरिल्ला युद्ध के दम पर वह कत्यूरियों को हराते हुए आगे बढ़ती रही। पुरुष वेश में तीलू ने सबसे पहले खैरागढ़ को मुक्त कराया। जिसके बाद उमटागढ़ी और सल्ट को जीत कर भिलंग भौण की तरफ चल पड़ी।
तीलू की दोनों अंगरक्षक सहेलियों को इस युद्ध में अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। कुमाऊं में जहा बेल्लू शहीद हुई उस स्थान का नाम बेलाघाट और देवली के शहीद स्थल को देघाट कहते हैं।
चौखुटिया तक गढ़ राज्य की सीमा निर्धारित करके तीलू अपने सैनिकों के साथ देघाट वापस लौट आई।
कलिंका घाट में फिर उसका शत्रुओं से भीषण संग्राम हुआ।
सराईखेत के युद्ध में तीलू ने कत्यूरी योद्धाओं को गाजर-मूली की तरह काट डाला और अपने पिता और भाइयों की मौत का बदला लिया।
सराईखेत के युद्ध में उसकी घोड़ी बिंदुली भी शत्रुओं का शिकार हो गई।
अंत में गढ़वाल से शत्रु का नामोनिशान ही मिट गया। जो बचे वे दासत्व स्वीकार कर यहीं के नगरिक बन गए।
घर लौटते हुए नयार नदी तट पर तीलू जलपान कर रही थी कि तभी शत्रु सैनिक रामू रजवार ने धोखे से तीलू पर तलवार का वार कर दिया।